शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2017

दोस्त, शब्दों के अन्दर हो।

दोस्त, शब्दों के अन्दर हो
या शब्दों के बाहर हो,
हमारी मुलाकातों में
कितनी अब रौनक है?
खिड़की कहाँ खुलती है
दरवाजा कब लगता है?
हमारी मुलाकातों के
किस्से कब कहे जाते हैं?
धूप भी ओढ़ी जाती है क्या
ठंड कैसे बिछायी जाती है?
पर्यावरण की बातों में
पेड़ कितने उगाये जाते हैं?
घंटी हर विद्यालय की
पढ़ने को बजती है क्या?
खेत किसान का हर वर्ष
उपजाऊ रह पाता है क्या?
मुट्ठी में जनता है या
मुट्ठी से बाहर है,
धरती, गरीबी को
कहाँ तक बिछाया करती है?
कान सुनते हैं क्या
कहानी टूटे पंखों की,
या केवल उड़ानों का जिगर
जमा होता है कानों पर?
**महेश रौतेला

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